मैं अनुवाद कार्य करता था, रिपोर्टिंग करता था, हिसाब किताब का काम करता था,जिससे मुझे अतरिक्त आमदनी
हो सके में एक योग्य,और उत्साही युवा था,और इसलिए मुझे काम पाने में बड़ी मुस्किले आयी,जो काम मिला वह भी भीख सा था,मुझे पेंटिंग का शौक था,साहित्य में रूचि थी,चाहता था क्लासिक उच्चकोटि के चित्र खरीदूं,चाहता था गोर्की,नेहरू,लेनिन मेरी आलमारी में हो,चाहता था ऐसा हो,जिसमे मैं और एक कमरा मेरी चाहत के सिवा कुछ न हो ,मैं भौतिकता का नही,कला संस्कृति-वौचारिकता का भूखा था.
पर मेरी इनकम ने मुझे ऐसा दुबला बना दिया था कि मुझे यह सब सपना लगता था.
तभी एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि मैं एक भैस पाल लूं.उसने पूरा हिसाब करके बताया कि भैंस कैसे और कितनी लाभकारी होती सकती है,और यदि मैं खुद घास,खली खरीदता रहू तो और लाभकारी होगा.
बात मुझे जम गयी,भैस मुझे अतरिक्त कामों से मुक्ति दे सकती थी,और लाभ और कामो के आमदनी से अधिक था.
मैंने कर्ज ले लिया और भैस खरीद ली,मेरे मकान के पीछे आँगन भी था.पत्नी ने विरोध किया था,सो भैस के आते ही उसे दुर्गन्ध आने लगी-उसके गोबर की,मूत्र की,शकायत करने लगी-मच्छर नही थे अब पैदा हो गए,इस पर मैंने उससे कहा-”भैस के दूध को देखो,उससे होने वाले लाभ को देखों,उससे पैदा होने वाली प्रदूषण को मत
देखो.
वास्तव में दुर्गन्ध मुझे भी आती थी,लेकिन मैंने जाहिर नही किया,आँगन पश्चिम की और था और उन दिनो हवाएं पश्चिम की और से ही चल रही थी,जिससे दुर्गन्ध सारे घर में भर जाती थी.
रोज शाम मैं बड़े चाव से घास-खडी खरीदने जाता था,प्रति रविवार बडे चाव से भैस को नहलाता और अपने यहाँ आने वाले लोगो को बड़े चाव से भैस दिखाता एक आदमी था जो आँगन साफ कर जाता,भैस को दूह जाता,इसके बावजूद मैं भी बडे चाव से आँगन को और धोता और कभी-कभी भैस को भी दूहता.
लाभ इतना हो रहा था कि मैं अधिक-से-अधिक भैस मैं डूबता जा रहा था. इसके पीछे कई बार मेरा अखबार पढ़ना
रह जाता,बल्कि अब मैं अखबार ऊपर-ऊपर ही पढता,गहरे या विस्तार में ना जाता.भैस के पीछे वेतन का कार्य गौण हो गया.यह लाभ का प्रधान कार्य बन गया.लाभ इतना हो रहा था की देखते-देखते कर्ज से मुक्ति मिल गयी
और पैसे की काफी बचत भी हुई.इस बचत में से मैंने एक भैस और खरीद ली.
दों भैसों के साथ मेरा व्यक्तित्व जैसे ऊपर उठा,में वेतन के कार्य को गौण मानने लगा .पत्नी ने कहा,”नौकरी छोड़ दो,किसी बेरोजगार को काम मिलेगा.मैंने कहा “प्राइवेट होती तो छोडनी पड़ती, सरकारी है,जो बिना काम किए चलती है सो क्यों छोडूं.”
मेरा रुतबा बढ़ने लगा,कैसे न बढ़ता.अब मेरे मकान का नाक-नक्श बदल गया था,घर में अब सोफासेट,फ्रिज,टीबी था,दरवाजे पर स्कूटर था.
एकदिन एक परिचित ने,जो सड़क पर मिल गया था,बात-बात में कहा,”आपके कपडों में गोबर की कैसी गंध आ रही है?”
यह सुना नही कि मैं चिढ कर बोला, “मेरे कपड़े आपसे कही ज्यादा उजले हैऔर कीमती भी,पत्नी उस परिचित के आगे बढ़ जाने पर बोली,तुम व्यर्थ चिढ़ते हो,हमारे कपडों में गोबर की गंध आती है,मेरी सहेलियां भी शिकायत करती है,कपडें हमारे औरो से ज्यादा कीमती है और उजले भी,पर गोबर के कारण कपडों के साथ-साथ गंध हमारे आचरण और विचार में भी आ गई है.”
“आचरण और विचारमें गोबर की गंध.तुम्हारा सिर तो नही फिर गया है? ” मैंने कहा.
पत्नी बोली यह,”गोबर की गंध नही थी की तुमने हमारे मोहल्ले की जमीन खेल मैदान के लिए स्कूल वालो को नही मिलने दिया,किशनलाल से कहा कि शराब के ठेकेदार को बेचो,वह ज्यादा पैसे दे रहा है,गरीब रिश्तेदार के यहा तुम शादी में नही गए,करीब न होते हुए अमीर रिश्तेदारों के यहा गए, पहले तुम्हे छोटे लोगो से हमदर्दी थी.पड़ोस के पी एच डी को तुम नालायक कहते हो क्योकि वह बेरोजगार है.पहले तुम उसका आदर करते थे.
यह सुन मैं कुछ न बोला.घर की ओर का शेष रास्ता हम मौन ही चले .
अब मैं तीसरी भैस खरीदने के बारे में सोच रहा था.पत्नी से कहा तो विरोध करते हुए बोली, “क्या दो भैसों से दिल नही भरा,जिन्दगी में भैस ही सब कुछ है क्या?”
“क्यों नही अभी अपना मकान बनना है.”
“भैस बंधोगे कहां?आँगन में दूसरी भैस ही मुश्किल से बंधती है.”
इस पर मैंने कहा आँगन को बढ़ा लूगा,पीछे वाला नही मानेगा तो डंडे से काम लूगा.”
यह सुनकर पत्नी बोली,”हाँ, यही तो हो ही रहा है दुनिया में.तीसरी के बाद तुम चौथी लोगे.भैसों का कोई अंत है,इस भैस संस्कृति के पीछे तुम्हारा वह स्वप्न क्या हुआ जिससे प्रेमचंद,गार्की वगैरह रहते थे,तुम्हारा चित्रकार कूंची उठता था.”
इधर में किताबों से,पेंटिंग से बिल्कुल टूट गया था,पर मैंने जैसे यह सब सुना ही नही और दूसरे दिन में तीसरी भैंस ले आया.